झोंपड़े का दर्द
झोंपड़े का दर्द बंगले की नींव में दफन हो गया,
सिसकियां,मज़बूरियां, चुभन आज कफन हो गया।
मैं तो ढूंढता फिरा हूँ शहर में एक सहारा,
आत्मीयता का एक बोल आज स्वपन हो गया।
सहरा में तलाश पानी की मृगतृष्णा बन गयी,
आत्महत्या ही जीने का अब प्रयत्न हो गया।
लिखा था हमने एक लम्बा संविधान यारो,
हर धारा पर डोलता आज वतन हो गया।
चादर से बाहर पसारना पैर अब छोड़ दो तुम
सच्चा आज कबीर का कथन हो गया।
निराश मेरी जिन्दा लाश गली-गली भटकी,
देखने वालों का अच्छा जशन हो गया।
-सुरेश भारद्वाज निराश
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