शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

विजय प्रकाश मिश्र 'विकल' की ग़ज़ल : बहुत ही याद आती है

बहुत ही याद आती है, छिपा भी अब नहीं सकता


बहुत ही याद आती है, छिपा भी अब नहीं सकता
बहुत कुछ अब जलाती है, बता भी अब नहीं सकता

मेरे एहसास से वाकिफ, कभी तुम हो नहीं सकते
छिपाया भी नहीं लेकिन, जता भी अब नहीं सकता

बहुत ही बार तुमको है, लगाया क्यों कलेजे से
कभी रोका नहीं था पर, लगा भी अब नहीं सकता

बहुत अरमान थे बेचैन, तुझे पाने की ख्वाहिश में
वो सोये तो नहीं थे पर, जगा भी अब नहीं सकता

कहाँ पर जख्म मारे है, किताबों के गुलाबों ने
वो रखे हैं वही पर मैं, हटा भी अब नहीं सकता

तेरे क़दमों में थे बिखरे, खतों के वो मेरे टुकड़े
फकत जिनको सजाया था, उठा भी अब नहीं सकता

कही कुछ तो कमी होगी, मेरी चाहत में ऐ दिलबर
निभा पाए न जो तुम वो, निभा मैं अब नहीं सकता

जुदाई में बहुत मजबूर सा, महसूस करता हूँ
है दिल रोकूँ तुम्हे लेकिन, बुला भी अब नहीं सकता ।


-विजय प्रकाश मिश्र 'विकल'
मोहल्ला : सराय सैफ, क़स्बा व पोस्ट- पाली,
 तहसील- सवायजपुर, जनपद- हरदोई (उ०प्र०)
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