गुरुवार, 19 मई 2016

विजय कुमार पुरी का गीत :   "मुझको पीड़ा होती है"

"मुझको पीड़ा होती है"


सड़क हादसे पर माँ बेटी बहन जब रोती है।
मत पूछो कि मेरे मन में कितनी पीड़ा होती है।।

ये सन्तानें समझ न पाती
कितनी कीमत जीवन की
होश गंवाते जोश में रहते
कर तेज़ गति निज वाहन की

रेत ज्यों फिसले हाथों से, मौत न ऐसी होती है।
मत पूछो कि मेरे मन में कितनी पीड़ा होती है।।

घर वाले बेहाल हुए सब
ये घाव बड़ा दर्दीला है
बात हमारी न सुनता है
क्यों बेटा हुआ हठीला है

आती जाती लोक निगाहों से छुप आँखे रोती हैं।
मत पूछो कि मेरे मन में कितनी पीड़ा होती है।।

झुंझलाता मन आहत है तन
बच्चों  के  इस व्यवहार  से
जग वालों से सुनते  गाली
और कभी-कभी परिवार से

न सुनने की जो खा ली कसमें, सन्तान न ऐसी होती है।
मत पूछो कि मेरे मन में कितनी पीड़ा होती है।।

आसमान पिता सा ऊपर
बैठ  निहारा  करता है
बच्चों की गलती पर वह
नित फटकारा  करता है

फितरत आज के बच्चों की, क्यों ठग जाने की होती है।
मत पूछो कि मेरे मन को कितनी पीड़ा होती है।।

सुख सुविधाएं ले लीं सारी
और उनका ही उपभोग किया
मात पिता को देकर दुःख
जीवन भर का रोग दिया

माँ रूप में बहती गंगा, सब पापों को धोती है
मत पूछो कि मेरे मन में कितनी पीड़ा होती है।।

विजय कुमार  पुरी
पालमपुर, ज़िला कांगड़ा, 
हिमाचल प्रदेश 
सम्पर्क  सूत्र : 09736621307,
 09816181836

मंगलवार, 17 मई 2016

पवन शर्मा "नीरज" के मुक्तक


पवन शर्मा "नीरज`` के मुक्तक 



तेरी चाहत ने जाने जाँ बनाया मुझको दीवाना
बिना तेरे लगे इक पल मेरा मुश्किल है जी पाना
तेरी बस जूस्तजूँ मे जाने जाँ कुछ हाल है ऐसा
शमाँ बन तू जहाँ जलती मै बन आता हूँ परवाना।।

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सफर मे साथ भी होते अगर तुम हमसफर होते
राहे काँटे भी सह लेते अगर तुम हमडगर होते
शमाँ रोशन भी कर देते जलाकर खुद को हम सनम
अगर राहे मौहब्बत मे बेवफा तुम नही होते।।
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अगर तेरे इरादो से सनम वाकिफ जो हम होते
तो इन तीरे निगाहो से कभी घायल नही होते
बचा लेते अगर खुद को हवा-ए-इश्क से सनम
तो उठ उठ के यूँ रातो मे अक्सर हम नही रोते।।
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कही बिजली चमकती है कही बादलगरजता है
कही सूखी जमीं बंजर कही सावन बरसता है
नही आता किसी को रास मौहब्बत का अफसाना
न जाने फिर भी क्यों इंसा मौहब्बत को तरसता है।।

- पवन शर्मा "नीरज"
चौक मौहल्ला कामाँ
भरतपुर राजस्थान :321022
मो0 :  8742093262

सोमवार, 16 मई 2016

डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़ल : सारे लोग


सारे लोग 



बादल गरजे तो डरते हैं नए-पुराने सारे लोग
गाँव छोड़कर चले गए हैं कहाँ न जाने सारे लोग

खेत हमारे नहीं बिकेंगे औने-पौने दामों में
मिलकर आए हैं पेड़ों को यही बताने सारे लोग

मैंने जब-जब कहा वफ़ा और प्यार है धरती पर अब भी
नाम तुम्हारा लेकर आए मुझे चिढ़ाने सारे लोग

गाँव में इक दिन एक अँधेरा डरा रहा था जब सबको
खूब उजाला लेकर पहुँचे उसे भगाने सारे लोग

भूखे बच्चे, भीख माँगते कचरा बीन रहे लेकिन
नहीं निकलते इनका बचपन कभी बचाने सारे लोग

धरती पर खुद आग लगाकर भाग रहे जंगल-जंगल
ढूँढ रहे हैं मंगल पर अब नए ठिकाने सारे लोग

इनको भीड़ बने रहने की आदत है, ये याद रखो
अब आंदोलन में आए हैं समय बिताने सारे लोग

चिड़ियों के पंखों पर लिखकर आज कोई चिट्ठी भेजो
ऊब गए है वही पुराने सुनकर गाने सारे लोग


-डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
डोईवाला देहरादून, उत्तराखंड
फ़ोन: 08938010850
ईमेल: joshirpg@gmail.com