गुरुवार, 19 जनवरी 2017

संजय वर्मा "दृष्टी "की कविता : क्या जिंदगी आधुनिक हो गई

क्या जिंदगी आधुनिक हो गई


क्या जिंदगी आधुनिक हो गई 

माँ अब नहीं देखती दीवार पर धुप आने का  समय 
अचार बनाने  में क्या मिलाया जाए  और कितना 
बूढ़े पग अब नहीं दबाए जाते अब क्यों 
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई

चश्मे के  नम्बर कब बढ़ गए 
सुई में धागा नहीं डलता कांप रहे हाथ कोई मदद नहीं 
बूढ़ों को संग ले जाने में शर्म हुई पागल अब क्यों 
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई

घर के पिछवाड़े से आती खांसी की आवाजें 
कोई सुध लेने वाला क्यों नहीं 
संयुक्त दीखते परिवार  मगर लगता अकेलापन 
कुछ खाने की लालसा मगर कहने में संकोच  क्यों   
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई

बुजुर्गो का आशीर्वाद /सलाह /अनुभव पर लगा जंग 
भाग दौड़ भरी दुनिया में उनके पास बैठने का समय क्यों नहीं 
गुमसुम से बैठे पार्क में और अकेले जाते धार्मिक स्थान अब क्यों  
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई

बुजुर्ग है तो रिश्ते है ,नाम है , पहचान है 
अगर बुजुर्ग नहीं तो बच्चों की  कहानियाँ बेजान है 
ख्याल ,आदर सम्मान को करने लगे नजर अंदाज अब क्यों  
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई

-संजय वर्मा "दृष्टी "
125 शहीद भगत सिंह मार्ग 
मनावर जिला धार (मध्य प्रदेश)
सम्पर्क सूत्र : 9893070756

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