मनोज चौहान की कविता : वह दिन
जीवन की आपाधापी से
लेकर कुछ पल उधार,
लौटता हूँ जब
गाँव के गलियारों में
जहाँ रहते हैं मेरे यार,
घेर लेती हैं मुझे वहां भी
कुछ नयी व्यस्ततायें
और जिम्मेदारियां l
बचपन के उन लंगोटिए दोस्तों से
मिल पाता हूँ सिर्फ
कुछ ही पल के लिए
वह भी तो होते हैं व्यस्त आखिर
अपनी - 2 जिम्मेदारियों
के निर्वहन में
इसीलिए नहीं करता शिकायत
किसी से भी l
सोचता हूँ कि सच में
कितने बेहतर थे वह दिन
बचपन से लेकर लड़कपन तक के
बेफिक्री के आलम में
निकल जाना घर से
और फिर लौट आना वैसे ही
हरफनमौलाओं की तरह
बेपरवाह l
जवानी की दहलीज पर
कदम रखते ही
हावी हो जाना उस जूनून का,
करना घंटों तक बातें
आदर्शवाद और क्रान्ति की,
आयोजित कर सभाएं, बैठकें
शामिल होना रैलियों में भी
बनाना योजनाएं
अर्धरात्रि तक जागकर
ताकि बदला जा सके समाज
और उसकी सोच को l
मेरे दोस्त आज भी
वही पुराने चेहरे हैं
मगर बक्त के रेले में
छिटक गए हैं हम सब
अपने - 2 कर्मपथ पर l
बेशक आ गया होगा फर्क
चाहे मामूली सा ही सही
हम सब के सोचने के तरीकों में
झुलसकर निज अनुभवों की
भठ्ठी की ऊष्मा से l
मगर वो मौलिक सोच यक़ीनन
आज भी जिन्दा है
कहीं ना कहीं
जो कर देती है उद्विगन
अंतर्मन को
और सुलगा जाती है अंगारे
बदलाब और क्रांति के लिए l.
-मनोज चौहान
पता : सेट नं.- 20, ब्लॉक नं.- 4,
एस जे वी एन कॉलोनी दत्तनगर,
पो. दत्तनगर, तहसील : रामपुर बुशहर,
जिला – शिमला (हिमाचल प्रदेश) -172001
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09857616326
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मेरी कविता "वह दिन" को प्रकाशित करने के लिए संपादक महोदय का बहुत-2 धन्यवाद ।
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